शुक्रवार, १४ डिसेंबर, २०१२

जाड़े की एक शाम


दिन ठंडा पड़ता जा रहा है ...
सूरज की किरणे बदन से
लिपटती है, लेकिन
खून खो चुका है
अपनी रफ़्तार . . .

पत्ते भी झरने शुरू हो गए है,
कब कौन सा बिखरेगा
मालूम नहीं ... शायद ...
लेकिन बिखरेगा जरूर
हर पत्ता ....

"बाग की उस बेंच पर वह
बूढ़ा नहीं दिखा कई दिन से ..."
तुमने सहज भाव से पूछा
एक शाम टहलते ।

"कही वो ......"

अन्दर, कही, कुछ
टूट रहा है ...
सुन सकता हूँ मै...
... सन्नाटा शोर मचाता ...

अच्छा लगा, तुमने
शाल ठीक से ओढ़ दी ...
ढाढस कर मैंने अपनी
चाल तेज कर दी ....



- श्रीधर जहागिरदार

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