मंगळवार, ११ डिसेंबर, २०१२

दिया और बाती : मेघा देशपांडेजी की एक बेहतरीन कविता का अनुवाद



बुझने को होती है बाती,
तब सुलगते है दो प्रश्न 
दिये के मन में -
" क्या मिला मुझे दान में?"
" क्या मुझे दान मिला?"

अनंत कालसे सांजबेला पर 
कोई डाल रहा है तेल दिये में .. 
तलेकी मिट्टी ने भी 
गुदवा लिया है उसकी रिसती धारासे ...
फिरभी ... बुझने को होती है बाती, तब .....

जलभुन उठता है दिया
देख झिलमिलाती दीपमाला
किसी गोपुर* के सम्मुख,
मन में सोचे, गर्भगृह में प्रदिप्त 
दीपशिखा है ज्यादा मोहक,
पूजा की थाली में सजते 
आरती के दिये में 
लौ बन जलना अधिक है सार्थक ...
जुड़ही  जाते है दो हाथ अनायास 
इसकी सोहबत के साथ प्रति दिन ..
लेकिन फिरभी, बुझने को होती है बाती , तब ...
       
धन्य धन्य हो जाता है, 
जब मिलकर कई ज्योती संयमसे  
है पकाती किसीका
 भोजन;
ज्योती ऐसी कितनी है जो 
अपनी उर्जा कर समर्पण 
गर्म करे दुसरोंका तन, 
जलने का बस सार यही,
यही मानता असली जीवन !!

देखी है उसने भूखी ज्वाला 
बेरहम, बेशरम, शैतानी हाला
खुशहाल घरोंदे बने निवाला ....
लेकिन फिरभी, बुझने को होती है बाती, तब ...
सुलगते है दो प्रश्न दिये के मन में  ..

बन मशाल, पथ आलोकित करना 
ध्येयशाली लगता है,
मंदिरोंमें सुलगती धुनी में जलना 
भाग्यशाली लगता है  ...
दो जुड़े हाथों के पीछे, 
मनके अंधकार से 
नित उभर आती है आशा की किरण नई  ...
फिरभी यहाँ, बुझने को होती है बाती, तब ....

जानता है,यहीं कहीं हराभरा समृद्ध वन 
लपलपाती 
अगम्य प्रक्षुब्ध ज्वालाओने
निगला है;
पूरा गाँव  तबाह कर गुजरी बाढ़ में 
भीग चुकी काठी काठी के अंतर में 
है सिसकती, चूल्हे में जल उठने 
दर्द समेटे अधीर ज्योती ...
इसने सुना है ....

कोई नहीं स्वयंसिद्ध यहाँ , फिर भी ..
हर दिन, दो हाथ इर्दगिर्द 
कर देते है ओट ... 
सुलभ जनम लेती है ज्योत
रहता इसका वंश सुरक्षित ...   
लेकिन फिरभी, बुझने को होती है बाती, तब ...
सुलगते है दो प्रश्न दिये के मन में  ..
   ...................
दूर कही .. वहां  ... 
बन कर अंश अज्ञात का 
रह गई ...
भूली-बिसरी ..
एक बत्ती .... 
शायद सुलगे, शायद ना भी ...
संभावना में 
इस 
जडी हुई ..पड़ी हुई ..
 ..
...ऐसेही ...
हर शाम ...
इस कल्पनासे खुश होती
...हजारो दिये जल उठे होंगे आज
 ...
..मैं घड तो पाई .. बस ये  है मेरा दान ...  
पहचानती ..
तेल ,दिया, दो हाथ ...
प्रतीक्षा इनकी ...इसे प्रयोजन मानती ....

फिरभी यहाँ 
बुझने को होती है बाती , तब ...
हर दिन जलने वाले 
 दिये के मन में
सुलगते है दो प्रश्न   ..

रचनाकार : मेघा देशपांडे, नागपुर 
- अनुवाद: श्रीधर जहागिरदार
गोपुर*  मंदिर का प्रवेशद्वार 


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