होठों का दरवाजा पिटती है कई बार, अंतरात्मा की आवाज , मगर
खड़ा रहता है बाहर पहरा देता स्वार्थ ....
मन की दीवारपर लगा पाऊँ माँ की तस्वीर
इतनी भी जगह मन में नहीं छोड़ी थी बिबीने
मगर हाँ, मन में थी कहीं एक अटारी,
खुश थी माँ, उस अटाला भरी अटारी में ....
चूल्हे की लकड़ीयों में दिखता था बाप
और तवे पर माँ , मेरे लिए जलते हुए …
कभी कभी साग रोटी खाते हुए
रोटी बन जाती है हाथ और खिलाती है साग,
जैसे माँ खिलाती थी ....
कुछ दिन और जिंदा रह सकते थे न वो ?
यह सवाल, " तुम्हारी तनख्वाह क्यों नहीं बढ़ी?"
पत्नी के इस सवाल के आगे टेक देता था घुटने ....
खड़ा रहता है बाहर पहरा देता स्वार्थ ....
मन की दीवारपर लगा पाऊँ माँ की तस्वीर
इतनी भी जगह मन में नहीं छोड़ी थी बिबीने
मगर हाँ, मन में थी कहीं एक अटारी,
खुश थी माँ, उस अटाला भरी अटारी में ....
चूल्हे की लकड़ीयों में दिखता था बाप
और तवे पर माँ , मेरे लिए जलते हुए …
कभी कभी साग रोटी खाते हुए
रोटी बन जाती है हाथ और खिलाती है साग,
जैसे माँ खिलाती थी ....
कुछ दिन और जिंदा रह सकते थे न वो ?
यह सवाल, " तुम्हारी तनख्वाह क्यों नहीं बढ़ी?"
पत्नी के इस सवाल के आगे टेक देता था घुटने ....
धूलसने सपने छोड़, सुबह जागकर
रोजमर्राकी मांगोसे मटमैला हुआ पानी बदनपर उंडेल
जिसका कभी लिहाज न कर सका उस भगवन के सामने सिगरेट सुलगाकर ,
अगरबत्ती ब्याग में भरकर ऑफिस में जलाता बॉस के सामने।
अगरबत्ती ब्याग में भरकर ऑफिस में जलाता बॉस के सामने।
मगर कही … कभी खुला आसमान बन
कभी कानून बन, तो कभी मेरी बेटी के रूप में
मिलती माँ और समझाती …
शराब मुझे पीती थी, तब यादोंके चने
छिटक कर गिरते टेबल के नीचे
उन्हें उठाते उठाते सर से टकराए टेबल में
बाप भी होता था कहीं ....
टेढ़ी मेढ़ी चाल से देह पहुँचती जब घर
अंतरात्मा की आवाज ने कई बार
पीटा था होठोंका दरवाजा
लेकिन बाहर पहरा देता खड़ा था स्वार्थ …
बस कुछ और नहीं …
मूल मराठी रचना : नि:शब्द(देव)
अनुवाद : श्रीधर जहागिरदार
कोणत्याही टिप्पण्या नाहीत:
टिप्पणी पोस्ट करा