जी हां, ये पेड़ की कविता है....
सही पूछा ....
पेड़ की कविता है तो
शब्दों में खुश्की कैसे ?
रूप इसका साधारणसा क्यूँ ?
बिखरे सपनोंसी हर पंक्ती इसकी
बेतरतीब है क्यूँ ?
क्यूँ पढते हुए छूट जाता है मुँह में
स्वाद कसैला राखसा ?
ठीक ही कहते हो ....
कौंधती बिजली गिरनेसे
पूरी तरह झुलसे, चरमराये
मेरे हरेभरे पेड़ की
यह अंतिम कविता है !
सम्हल लो …
चमन आपका भी बहार पर है …
और कड़कना बिजली का
शायद जारी रहे
पूरे बहार पर हो पेड़ तभी
बिखरकर होना उसका धाराशायी …
नहीं झेल पाता ऐसी पीड़ा हर कोई !
- मूल मराठी रचना : अमेय पंडित
- अनुवाद : श्रीधर जहागिरदार
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