बुधवार, २८ नोव्हेंबर, २०१२

फूल, पंछी और जख्म

भीतर भीतर ... मन के  अंदर ...
फूल एक महकता है,
खुशबू अपनी फ़ैलाने
पवन हिलोरे ढूंडता है....
(...महक यहांसे दूजे मन में,
बस, बसाना चाहता है,
नदी किनारे किसी मंदिर को
सहज सजाना चाहता है ...)

भीतर ... भीतर ... गहरे अंदर  ...
एक है पंछी, फडफडाता,
छुटकारा पा कारा से
उडान भरने कसमसाता  ... 
(...कभी चाहता, खुलकर गाये,
कभी सोचता नभ पर छाये ..
कभी डाल पर मौन बैठकर,
पत्तोपत्तो में खो जाये ...)

गहरे ..  गहरे .. अंतर तल पर ...
एक जख्म, निरंतर रिसता,
भेद जन्मका सुलझाने में 
मृत्यु से जाकर है मिलता  ... 
(...उसने कभी न चाहा भरना,
स्मृतियों से न चाहा लड़ना,
'जीवन' ये नाम पाकर
उसने चाहा था ,बस, जीना ...)

- श्रीधर जहागिरदार
२८-१२-२०१२

कोणत्याही टिप्पण्‍या नाहीत:

टिप्पणी पोस्ट करा