रविवार, १६ डिसेंबर, २०१२

नौका

फुर्सत ही फुर्सत है अब, 
तालाबंद यादोंको खोल फिर समेटने के लिए !


मिल जाते हैं अनायास,
दराज के कोने में छुपे पड़े निशान,
पुराने फोटो, कुछ ख़त, धुलसना हार्मोनिका
और बिखरे पन्ने कविताके ....

हर चीज उलझी हुई ,पगलाये जज्बतोंमें ...
चौंध जाता है मनोमस्तिष्क में इतिहास,
बने -संवरे, टूटे-बिगड़े, सकपकाए पलों का, ..

व्यवहार दक्ष, कर्तव्य दक्ष,
सामाजिक प्रतिमा दक्ष.
दक्ष, दक्ष, दक्ष..
पारीवारिक सुरक्षा, बस एकही.. लक्ष्य!

कैसे गुजरा उसके बाद समय, पता न चला ...

हर कोई अब मगन अपने आप में, और मैं
बैठा हूँ, नदीके प्रवाह में पैर छोड़कर ...
इस पार की यांदोको संजोकर,
उस तट पर आँख गडाकर ...

हिलोरे खाती, होगी आती
एक नौका बिन माझी की,
होले होले; पाल पर
मेरा नाम लिखवाकर ...

तब तक, रहने दो,
शब्दों के टुकडे पास मेरे ,
बीत ही जायेगा समय
कलिडिओस्कोप में डालकर ...

- श्रीधर जहागिरदार
(मेरी मराठी कविता "होडी " का अनुवाद )

शनिवार, १५ डिसेंबर, २०१२

अटक मटक ..(RAP )

अटक मटक....   (RAP )


आळोखे पिळोखे, चालती सारखे    
मनाला बसले, घट्ट हे  विळखे ..
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पोटात आग, डोळ्यात जाग,
आयुष्याची  भागमभाग ...

जीवतोड, मोडतोड,  
नशिबाची खाडाखोड  ... 

उसने गाणे, खोटे नाणे,
फुसके टरफल कुजके दाणे,  ....

धुसफूस, बदल कूस 
शृंगाराची नासधूस ... 

झाड-वारे, अंगारे धुपारे, , 
पदवीला त्या आग लाव रे  ...    

उलट सुलट, वार पलट,
जिंकण्याची खटपट खटपट .....  

लाज शरम, भलते भ्रम, 
झाकण्याचे नकोत श्रम ... 

भलते सलते, कुणा न सलते,
बघून बघून  सवय जडते ...
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अटक मटक, इथून सटक
जगण्याची लागेल चटक ...


- श्रीधर जहागिरदार
१६-१२-२०१२

शुक्रवार, १४ डिसेंबर, २०१२

चाखतो जगातील निंबोळ्या दिवसा (अनुवाद)


कधी स्पंदन, कधी श्वास असतेस तू
दूर असते तरी आसपास असतेस तू...

.
झुरणीस लागते मन माझे उदासवाणे,
आठवून जेव्हा मज उदास असतेस तू...
.
सर्व सीमा आराधनेच्या पार केल्या ,
आरती. नमाज, कधी अरदास असतेस तू...
.
नटणे थटणे तुझे कशाला माझ्या साठी ?
एरवी तशीही मनात 'खास' असतेस तू ...
.

नाते अपुले होत चालले जुने किती
रोज नवखाच एक भास असतेस तू...
.

चाखतो जगातील निंबोळ्या दिवसा
रात्रीस गुळाचा गोड घास असतेस तू...




- अनुवाद : श्रीधर जहागिरदार

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निलेश शेव्गावकर यांची मूळ रचना :


कभी धड़कन तो कभी सांस होते हो,
दूर रहकर भी मेरे आसपास होते हो.
.
डूबने लगता है मेरा दिल उदासी में,
मेरी याद में जब तुम उदास होते हो.
.

सारी हद्दे लांघता हूँ तुम्हारे सजदे में ,
इबादत, पूजा तुम्ही अरदास होते हो.
.

सजो ना संवरो मेरी ख़ातिर, फिर भी,
मेरे लिए तुम ऐंवें भी ख़ास होते हो.
.
पुराना हो चला है अब हमारा रिश्ता,
रोज़ मगर एक नया एहसास होते हो.


चूसता हूँ दिन में जहान की निम्बोली,
हर शब् तुम गुड की मिठास होते हो.

जाड़े की एक शाम


दिन ठंडा पड़ता जा रहा है ...
सूरज की किरणे बदन से
लिपटती है, लेकिन
खून खो चुका है
अपनी रफ़्तार . . .

पत्ते भी झरने शुरू हो गए है,
कब कौन सा बिखरेगा
मालूम नहीं ... शायद ...
लेकिन बिखरेगा जरूर
हर पत्ता ....

"बाग की उस बेंच पर वह
बूढ़ा नहीं दिखा कई दिन से ..."
तुमने सहज भाव से पूछा
एक शाम टहलते ।

"कही वो ......"

अन्दर, कही, कुछ
टूट रहा है ...
सुन सकता हूँ मै...
... सन्नाटा शोर मचाता ...

अच्छा लगा, तुमने
शाल ठीक से ओढ़ दी ...
ढाढस कर मैंने अपनी
चाल तेज कर दी ....



- श्रीधर जहागिरदार

मंगळवार, ११ डिसेंबर, २०१२

दिया और बाती : मेघा देशपांडेजी की एक बेहतरीन कविता का अनुवाद



बुझने को होती है बाती,
तब सुलगते है दो प्रश्न 
दिये के मन में -
" क्या मिला मुझे दान में?"
" क्या मुझे दान मिला?"

अनंत कालसे सांजबेला पर 
कोई डाल रहा है तेल दिये में .. 
तलेकी मिट्टी ने भी 
गुदवा लिया है उसकी रिसती धारासे ...
फिरभी ... बुझने को होती है बाती, तब .....

जलभुन उठता है दिया
देख झिलमिलाती दीपमाला
किसी गोपुर* के सम्मुख,
मन में सोचे, गर्भगृह में प्रदिप्त 
दीपशिखा है ज्यादा मोहक,
पूजा की थाली में सजते 
आरती के दिये में 
लौ बन जलना अधिक है सार्थक ...
जुड़ही  जाते है दो हाथ अनायास 
इसकी सोहबत के साथ प्रति दिन ..
लेकिन फिरभी, बुझने को होती है बाती , तब ...
       
धन्य धन्य हो जाता है, 
जब मिलकर कई ज्योती संयमसे  
है पकाती किसीका
 भोजन;
ज्योती ऐसी कितनी है जो 
अपनी उर्जा कर समर्पण 
गर्म करे दुसरोंका तन, 
जलने का बस सार यही,
यही मानता असली जीवन !!

देखी है उसने भूखी ज्वाला 
बेरहम, बेशरम, शैतानी हाला
खुशहाल घरोंदे बने निवाला ....
लेकिन फिरभी, बुझने को होती है बाती, तब ...
सुलगते है दो प्रश्न दिये के मन में  ..

बन मशाल, पथ आलोकित करना 
ध्येयशाली लगता है,
मंदिरोंमें सुलगती धुनी में जलना 
भाग्यशाली लगता है  ...
दो जुड़े हाथों के पीछे, 
मनके अंधकार से 
नित उभर आती है आशा की किरण नई  ...
फिरभी यहाँ, बुझने को होती है बाती, तब ....

जानता है,यहीं कहीं हराभरा समृद्ध वन 
लपलपाती 
अगम्य प्रक्षुब्ध ज्वालाओने
निगला है;
पूरा गाँव  तबाह कर गुजरी बाढ़ में 
भीग चुकी काठी काठी के अंतर में 
है सिसकती, चूल्हे में जल उठने 
दर्द समेटे अधीर ज्योती ...
इसने सुना है ....

कोई नहीं स्वयंसिद्ध यहाँ , फिर भी ..
हर दिन, दो हाथ इर्दगिर्द 
कर देते है ओट ... 
सुलभ जनम लेती है ज्योत
रहता इसका वंश सुरक्षित ...   
लेकिन फिरभी, बुझने को होती है बाती, तब ...
सुलगते है दो प्रश्न दिये के मन में  ..
   ...................
दूर कही .. वहां  ... 
बन कर अंश अज्ञात का 
रह गई ...
भूली-बिसरी ..
एक बत्ती .... 
शायद सुलगे, शायद ना भी ...
संभावना में 
इस 
जडी हुई ..पड़ी हुई ..
 ..
...ऐसेही ...
हर शाम ...
इस कल्पनासे खुश होती
...हजारो दिये जल उठे होंगे आज
 ...
..मैं घड तो पाई .. बस ये  है मेरा दान ...  
पहचानती ..
तेल ,दिया, दो हाथ ...
प्रतीक्षा इनकी ...इसे प्रयोजन मानती ....

फिरभी यहाँ 
बुझने को होती है बाती , तब ...
हर दिन जलने वाले 
 दिये के मन में
सुलगते है दो प्रश्न   ..

रचनाकार : मेघा देशपांडे, नागपुर 
- अनुवाद: श्रीधर जहागिरदार
गोपुर*  मंदिर का प्रवेशद्वार 


सोमवार, ३ डिसेंबर, २०१२

निवारा




खळखळाट आयुष्याचा
स्तब्ध  उभा मी काठी,
जे मेघ बरसुनी गेले
ते नव्हते माझ्या साठी ...

अनभिज्ञ असा मी फिरलो
अज्ञातशा वाटेवरती,
आरूढ होऊनी तगलो
प्रश्नांच्या लाटेवरती ....

सत्यास शोधता रानी
डोहातुन साद मिळाली,
मी हात तयाला देता
मज खेचून आत निमाली ...

तो एकची आहे कुंड
ज्याच्यात मिसळती धारा,
थकलेल्या या गात्रांना
झुळझुळता गार निवारा...


- श्रीधर जहागिरदार
 ४-१२-२०१२

रविवार, २ डिसेंबर, २०१२

अनुवादित गझल


तिची आठवण मनी, हर क्षणी छळते मला           
पण असाव्या इच्छा थोड्या हे कळते मला...

बीज प्रीतीचे वृक्ष होईल कधी न कधी 
ठेव तू ओलावा जपून मन म्हणते मला...  

ते स्मित की हसलीस बघून हाल माझे
लक्ष तुझे माझ्याकडे, हे पुरे असते मला..  

होऊ दे जखमा कितीही सोबतीत तुझ्या
क्षण तुझ्या भेटीचा हे मलम असते मला...

हयातीत ह्या साथ तिची नशीबात नाही
तिच्या साठी जन्म घ्यावा पुन: पटते मला ...

- श्रीधर जहागिरदार (मराठी अनुवाद)



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(मूळ हिंदी रचना)
दिल में हर पल उन का ग़म रखते है,
हसरतें रखतें तो है मगर कम रखते है.
.
इश्क़ का बीज कभी दरख़्त बने शायद,
दिल की मिट्टी इसीलिए नम रखते है.
.
मुस्कान थी या तंज़ था मेरे हालात पर,
फिर भी चलो! चाहत का भरम रखते है.
.
तेरी सोहबत ज़ख्म देती है सो देती रहे,
मिलते है, पर साथ ही मरहम रखते है.
.
इस हयात में तो वो नहीं मिलने वाले,
उनकी ख़ातिर कोई और जनम रखते है.

- निलेश शेवगावकर