बुधवार, १२ ऑक्टोबर, २०११

देखता हूँ मुड़कर मै जब


देखता हूँ मुड़कर मैं जब, लगता नहीं यह फासला,
कर लिया पार मैंने, दो दशक का सिलसिला।

इस दौड़ में कई मोड़ थे, हर मोड़ पर था काफिला,
शामिल हुआ मैं जहाँ, हर शख्स था काबिल मिला. 


दहशत भरी थी जब हवा, मैं जमींपर ही चला,
हाथ बढ़ता, साथ देता हर जगह इन्सान मिला. 



होड़ है जीनेकी बाहर, जीनेकी मगर   फुर्सत नही,
एक पल थमकर यहाँ, जीनेका था मक्सद मिला. 

हसरत थी, मैं फूल बन, महकू किसी बाग़ में,
अदनासा ख्वाब मेरा, आकर यहाँ हाँसिल मिला.

--- श्रीधर जहागिरदार

(Standard Chartered Bank से जून २०१० मे सेवा निवृत्तीपर रचित मेरे मनोभावो को उजागर करती रचना )

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