मी एक झाड पाहिले, शब्दांनी रसरसलेले , मातीतून उगवून आठवणींच्या, आकाशाला भिडलेले ..
बुधवार, ३० एप्रिल, २०१४
शनिवार, १२ एप्रिल, २०१४
पेड़ की कविता
जी हां, ये पेड़ की कविता है....
सही पूछा ....
पेड़ की कविता है तो
शब्दों में खुश्की कैसे ?
रूप इसका साधारणसा क्यूँ ?
बिखरे सपनोंसी हर पंक्ती इसकी
बेतरतीब है क्यूँ ?
क्यूँ पढते हुए छूट जाता है मुँह में
स्वाद कसैला राखसा ?
ठीक ही कहते हो ....
कौंधती बिजली गिरनेसे
पूरी तरह झुलसे, चरमराये
मेरे हरेभरे पेड़ की
यह अंतिम कविता है !
सम्हल लो …
चमन आपका भी बहार पर है …
और कड़कना बिजली का
शायद जारी रहे
पूरे बहार पर हो पेड़ तभी
बिखरकर होना उसका धाराशायी …
नहीं झेल पाता ऐसी पीड़ा हर कोई !
- मूल मराठी रचना : अमेय पंडित
- अनुवाद : श्रीधर जहागिरदार
लेबल:
अनुवाद,
Poem in Hindi
सोमवार, ७ एप्रिल, २०१४
दिशाहीन
उध्वस्त क्षितीज, अन सूर्य दिशाहीन,
आकाश स्वच्छ नाही, पुरतेच ते मलीन.
तुटतील दोर आणि होईल फक्त लीन!
असतात भोवताली,चालूच हालचाली,
साऱ्यात मात्र स्तब्ध, मी एकटाच दीन!
श्वासांची फक्त ग्वाही, जगलो कधीच नाही,
हाती कधी फुलेना, कांटेही दंशहीन!
हातात फक्त लुळे, उरलेत शब्द खुळे,
त्यांना कुठे किनारा, झालेत अर्थहीन !
- श्रीधर जहागिरदार (१९७२)
मंगळवार, १ एप्रिल, २०१४
बंद आवाज की आहट
होठों का दरवाजा पिटती है कई बार, अंतरात्मा की आवाज , मगर
खड़ा रहता है बाहर पहरा देता स्वार्थ ....
मन की दीवारपर लगा पाऊँ माँ की तस्वीर
इतनी भी जगह मन में नहीं छोड़ी थी बिबीने
मगर हाँ, मन में थी कहीं एक अटारी,
खुश थी माँ, उस अटाला भरी अटारी में ....
चूल्हे की लकड़ीयों में दिखता था बाप
और तवे पर माँ , मेरे लिए जलते हुए …
कभी कभी साग रोटी खाते हुए
रोटी बन जाती है हाथ और खिलाती है साग,
जैसे माँ खिलाती थी ....
कुछ दिन और जिंदा रह सकते थे न वो ?
यह सवाल, " तुम्हारी तनख्वाह क्यों नहीं बढ़ी?"
पत्नी के इस सवाल के आगे टेक देता था घुटने ....
खड़ा रहता है बाहर पहरा देता स्वार्थ ....
मन की दीवारपर लगा पाऊँ माँ की तस्वीर
इतनी भी जगह मन में नहीं छोड़ी थी बिबीने
मगर हाँ, मन में थी कहीं एक अटारी,
खुश थी माँ, उस अटाला भरी अटारी में ....
चूल्हे की लकड़ीयों में दिखता था बाप
और तवे पर माँ , मेरे लिए जलते हुए …
कभी कभी साग रोटी खाते हुए
रोटी बन जाती है हाथ और खिलाती है साग,
जैसे माँ खिलाती थी ....
कुछ दिन और जिंदा रह सकते थे न वो ?
यह सवाल, " तुम्हारी तनख्वाह क्यों नहीं बढ़ी?"
पत्नी के इस सवाल के आगे टेक देता था घुटने ....
धूलसने सपने छोड़, सुबह जागकर
रोजमर्राकी मांगोसे मटमैला हुआ पानी बदनपर उंडेल
जिसका कभी लिहाज न कर सका उस भगवन के सामने सिगरेट सुलगाकर ,
अगरबत्ती ब्याग में भरकर ऑफिस में जलाता बॉस के सामने।
अगरबत्ती ब्याग में भरकर ऑफिस में जलाता बॉस के सामने।
मगर कही … कभी खुला आसमान बन
कभी कानून बन, तो कभी मेरी बेटी के रूप में
मिलती माँ और समझाती …
शराब मुझे पीती थी, तब यादोंके चने
छिटक कर गिरते टेबल के नीचे
उन्हें उठाते उठाते सर से टकराए टेबल में
बाप भी होता था कहीं ....
टेढ़ी मेढ़ी चाल से देह पहुँचती जब घर
अंतरात्मा की आवाज ने कई बार
पीटा था होठोंका दरवाजा
लेकिन बाहर पहरा देता खड़ा था स्वार्थ …
बस कुछ और नहीं …
मूल मराठी रचना : नि:शब्द(देव)
अनुवाद : श्रीधर जहागिरदार
दूरी
मेरे शहर से तुम्हारे गांव को जोड़नेवाली सड़क
उसपर होने वाली बारीश
सच कहूँ तो समान होती है
मगर जब भी होती है, तुम्हारे माथे पर उग आती है
चिंता की लकीरें, और आते हीजहन में बो देती है सवाल
तुम्हारे टिकाव का …
सच कहूँ तो समान होती है
मगर जब भी होती है, तुम्हारे माथे पर उग आती है
चिंता की लकीरें, और आते हीजहन में बो देती है सवाल
तुम्हारे टिकाव का …
समय पर आयेगी ? काफी होगी या.…
अकाल? सूखा ? बाढ़ ?
अकाल? सूखा ? बाढ़ ?
और सड़क के शहर छूने वाले इस छोर पर मै हूँ ,
बारीश की बूंदें झेलते,
दो चार ओलों को सहेजते हुए.....
जब भी आती है बारीश , मेरे लिए होती है वो
मन भावन गीली मिट्टी की सौंधी खुशबू,दो चार ओलों को सहेजते हुए.....
जब भी आती है बारीश , मेरे लिए होती है वो
सरसराती हरीभरी किसीकी यादें ,
मेरी कल्पना में बसे सुख दुखोंको सहलाने वाली बौछार,
मेरी तरोताजा अंत:प्रेरणा …
इन सब में याद ही नहीं रहता बारीश का तांडव, जिस में बह चुकी थी
जरूरतें तुम्हारे टिकाव की ....
सड़क के शहरवाले इस छोर पर मैं
और उस छोर पर मुझे न दिखाई देनेवाले तुम
अंत:प्रेरणा और एहसास के बीचकी यह दूरी
क्या कभी मिट पायेगी मुझसे?
जरूरतें तुम्हारे टिकाव की ....
सड़क के शहरवाले इस छोर पर मैं
और उस छोर पर मुझे न दिखाई देनेवाले तुम
अंत:प्रेरणा और एहसास के बीचकी यह दूरी
क्या कभी मिट पायेगी मुझसे?
मूल रचना : विभावरी बिडवे
अनुवाद: श्रीधर जहागिरदार
अनुवाद: श्रीधर जहागिरदार
मूल रचना
अंतर
**** माझ्या शहरातून तुझ्या गावाकडे
जाणाऱ्या रस्त्यावर पाऊस सारखाच असतो खरंतर!
मात्र तो कधीही आला तरी
त्या टोकाला असते एक विवंचना.
तो कधीही आला तरी घेऊन येतो
टिकावाचा प्रश्न….
वेळेत येईल? आणि आलाच तर पुरेसा?
दुष्काळ, अवर्षण?
मात्र रस्त्याच्या शहरात घेऊन येणाऱ्या
ह्या टोकाला मी असते पाऊस झेलत…
चारदोन गारा वेचत… पाऊस कधीही आला तरी माझ्यासाठी असतो तो
चित्तवृत्ती बहरून टाकणारा,
मातीच्या वासाने
भावनांना दाहवणारा,
कोणाच्या आठवणी कुरवाळणारा….
माझ्या काल्पनिक सुख दुखाःला गोंजारणारा…
माझ्या अंतप्रेरणेला जागवणारा….
त्यामध्ये मी विसरून जाते पावसाचं तांडव,
ज्या पावसात वाहून गेलेली असते
तुझी टिकावाची मुलभुत गरज….
रस्त्याच्या शहरातल्या ह्या टोकाला मी
आणि त्या टोकाला मला न दिसणारा तू…
अंतप्रेरणे पासून जाणीवांपर्यंतचं हे अंतर
कधी होणार पार मझ्याकडून…. ?
विभावरी
लेबल:
अनुवाद,
Poem in Hindi
याची सदस्यत्व घ्या:
पोस्ट (Atom)