मैं बँटा हूँ
अंदर ही अंदर, टुकड़ो में ...
नाम, जाती, पंथ, भाषा, विचार
रोजगार, व्यवसाय, खान-पान
कुछ टुकड़े सहमे सहमेसे
बसते है भीड़ से दूर ,
अपने स्वतंत्र अस्तित्व के प्रति
असमंजस में...
सिकुड़े हुए हाशिये में !
मन को हवाएं छूती है
न जाने किस किस दिशा से आती है
कुछ सहलाती है किसी टुकड़े को
हाशिये के पास से गुजरते हुए
अच्छा लगता है,
पर तभी कुछ डराती है
लाल धूल सना बवंडर बन .....
"क्यूँ डरते हो ?"
पूछता है भीड़ से सना
गर्म हवा का झोंका
नहीं बता पाता
हाशिये में डर ही तो बसता है !!
काश ! समझ सकती ये भीड़
सदियोंसे हाशिया छोड़,
व्यवस्था की व्याख्या लिखनेवाली !!