शनिवार, १२ एप्रिल, २०१४

पेड़ की कविता

 
जी हां, ये पेड़ की कविता है....

सही  पूछा   ....

पेड़ की कविता है तो
शब्दों में खुश्की कैसे ?
रूप इसका साधारणसा क्यूँ  ?
बिखरे सपनोंसी हर पंक्ती इसकी
बेतरतीब है क्यूँ ?
क्यूँ पढते हुए छूट जाता है मुँह में
स्वाद कसैला राखसा ?

ठीक ही  कहते हो ....

कौंधती बिजली गिरनेसे
पूरी तरह झुलसे, चरमराये
मेरे हरेभरे पेड़ की
यह अंतिम कविता है  !

सम्हल लो …

चमन आपका भी बहार पर है  …
और कड़कना बिजली का
शायद  जारी रहे

पूरे बहार पर हो पेड़ तभी
बिखरकर होना उसका धाराशायी …

नहीं झेल पाता ऐसी पीड़ा हर कोई !

- मूल मराठी रचना : अमेय पंडित
- अनुवाद : श्रीधर जहागिरदार

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